Hindi News: दिवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। इस साल वर्ष 2013 में शुक्रवार [8.11.2013] को सायंकालीन अर्घ्य है [9.11.2013] शनिवार को प्रात:कालीन अर्घ्य है। यह ऐसा पूजा विधान है जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से कि गई इस पूजा से मानव की मनोकामना पूर्ण होती है। सूर्य नारायण और भगवती शक्ति (प्रकृति) की उपासना का पर्व छठ पूजा पर उगते हुए सूर्य के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को भी अर्घ्य देने की परंपरा है, जो हमें सभी के प्रति उदारता बरतने और सभी को सम्मान देने का संदेश देती है।
भारतीय संस्कृति में पर्व अति महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस संदर्भ में कार्तिक मास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस मास की लगभग प्रत्येक तिथि में कोई न कोई व्रत-पर्व अवश्य पड़ता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल, बिहार के मिथिलांचल और झारखंड में अत्यंत लोकप्रिय छठ-पूजा महापर्व का पर्वकाल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में चतुर्थी से सप्तमी तक रहता है। इन चार दिनों में सूर्यनारायण तथा प्रकृति (शक्ति) की पूजा-अर्चना के बारे में मान्यता है कि यह पुरुषार्थ चतुष्टय – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने के साथ-साथ दीर्घायु और आरोग्यता भी देती है। आज यह पर्व देश के लगभग सभी क्षेत्रों में बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।
इसमें तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है। सूर्य देवता नित्य दर्शन देने वाले एकमात्र देव है, वहीं छठ एकमात्र पर्व है, जिसमें उगते हुए सूर्य के साथ-साथ अस्ताचलगामी सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है। यह परंपरा हमें संदेश देती है कि हमें उन्हें तो सम्मान देना ही चाहिए, जो आगे बढ़ते हैं, साथ ही उनका भी सम्मान करना चाहिए, जो अपनी यात्रा पूरी करके प्रभावहीन हो गए हैं या जिनका महत्व अब कम हो गया हो।
छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं-
यह पर्व चार दिनों का है। भैयादूज के तीसरे दिनसे यह आरंभ होता है। पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। इस दिन को कदुआ भात कहते हैं। अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है। इस दिन रात में खीर बनती है। व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं। इसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं । अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्जित है । जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं।
वेदों में इनकी महिमा का गुणगान किया गया है। इसीलिए भारत में सूर्याेपासना की परंपरा वैदिक काल से ही रही है। संध्योपासना वस्तुत: सूर्य-आराधना ही है। आज भी असंख्य श्रद्धालु नित्य असीम आस्था के साथ इन्हें प्रतिदिन अर्घ्य देकर प्रणाम करते हैं। योगविद्या में वर्णित सूर्य-नमस्कार मात्र एक व्यायाम नहीं, बल्कि सूर्य-उपासना का एक प्रभावकारी माध्यम भी है। धर्मग्रंथों में लिखा है कि जो व्यक्ति सूर्यदेव को नित्य इस प्रकार नमस्कार करता है, वह कभी रोगी और दरिद्र नहीं होता।
ऊॅं सूर्याय नम: के साथ रोज सूर्य को जल चढ़ाने से व्यक्ति कई रोगों से मुक्त रहता है। कई जगहों पर लोग रविवार सूर्य का दिन होने के कारण नमक का परित्याग करते हैं।
वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय-स्तोत्र द्वारा सूर्य की स्तुति करते हुए इनके विराट स्वरूप का वर्णन किया गया है, ‘ये सूर्यदेव ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कंद, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चंद्रमा, वरुण हैं तथा पितृ आदि भी ये ही हैं। विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भी संकट के भय में जो कोई व्यक्ति सूर्यदेव का स्मरण-पूजन करता है, उसे दुख नहीं भोगना पड़ता।’
लोक में यह सूर्य षष्ठी के नाम से विख्यात है। विद्वानों का एक वर्ग मानता है कि मगध-क्षेत्र में सबसे पहले सूर्य-पूजा को सार्वजनिक पर्व का स्वरूप मिला। मान्यता है कि ‘मग’ ब्राह्मणों के वर्चस्व के कारण यह क्षेत्र मगध कहलाया, जो सूर्य के ही उपासक थे। इन्हें सूर्य की रश्मियों से चिकित्सा करने में उल्लेखनीय सफलता मिली थी। मगध में पनपी चार दिवसीय सूर्य षष्ठी व्रतोपासना की परंपरा उत्तरोत्तर समृद्ध होती चली गई और महापर्व बन गई। ‘सूर्यषष्ठी’ में सूर्यदेव के साथ षष्ठी देवी (छठमाता) की पूजा भी की जाती है। ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं देवीभागवत के अनुसार, प्रकृति (आद्या महाशक्ति) का छठा अंश होने के कारण इन देवी को षष्ठी कहा जाता है। वात्सल्यमयी षष्ठी देवी बच्चों की रक्षिका एवं आयुप्रदा हैं।
Source- Spiritual News in Hindi